Tuesday, July 15, 2014




सोनू  कृष्ण तिवारी पुत्र स्व. श्री बालगोविन्द कृष्ण तिवारी 





Sohgaura is a Village in Kauri Ram Tehsil in Gorakhpur District of Uttar Pradesh State, India. It belongs to Gorakhpur Division . It is located 30 KM towards South from District head quarters Gorakhpur. 3 KM from Kauriram. 292 KM from State capital Lucknow 

Sohgaura Pin code is 273413 and postal head office is Kauriram . 

Chiutaha Basavanpur ( 2 KM ) , Mishrauli ( 3 KM ) , Tighara Khurd ( 3 KM ) , Mahopar ( 3 KM ) , Pandeypar ( 4 KM ) are the nearby Villages to Sohgaura. Sohgaura is surrounded by Bansgaon Tehsil towards west , Brahmpur Tehsil towards East , Gagaha Tehsil towards South , Sardarnagar Tehsil towards North . 

सोनू कृष्ण तिवारी पुत्र स्व. श्री बालगोविन्द कृष्ण तिवारी


पांच हजार साल पुराना गांव
गोरखपुर। पांच हजार साल पुराने ऐतिहासिक सोहगौरा गांव के
कौड़ीराम से चार किलोमीटर दूर आमी और राप्ती नदी के संगम पर बसे सोहगौरा गांव में कुछ पुश्तैनी मकान

टूटकर भव्य इमारतों में तब्दील हो गये हैं, गांव की युवा पीढ़ी रोजगार की

तलाश में महानगरों की ओर हो गयी है।
इस अति प्राचीन गांव में अब पहले की तरह वेदमंत्रों की आवाज गूंजती है। बारुदी गंध ने यहां की फिजा

बदल दी है। गैंगवार के चलते यहां अब तक 38 लोगों की जानें जा चुकी हैं, इसीलिए श्री त्रिपा�� ी क्षोभ से भरे

हैं। । यह कहते समय उनका चेहरा गौरवान्वित

रहता है, लेकिन गांव की बदहाली ने उन्हें दुखी कर दिया है।

भारतीय इतिहास अनुसंधान केन्द्र के पूर्व चेयरमैन प्रो. दयानाथ त्रिपा�� ी ने इस गांव में खुदाई करवाकर

यहां की ऐतिहासिकता प्रमाणित की है। प्रो. त्रिपा�� ी के मुताबिक सोहगौरा विश्व का प्राचीनतम ग्राम

है, जो पांच हजार वर्षो से एक ही स्थल पर अपने होने का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। इस गांव में खुदाई के

समय चित्रित धूसर मृदभाण्ड, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय का ताम्रपत्र, अकाल के समय दुर्भिक्ष को

दान देने का प्रमाण और अन्य कई साक्ष्य मिले हैं।
गोरखपुर।/    सोनू कृष्ण तिवारी पुत्र स्व. श्री बालगोविन्द कृष्ण तिवारी


सोहगौरा गाँव:
गोरखपुरके बांसगाँव तहसील क्षेत्र में सोहगौरा गाँव

सोहगौरा गाँव प्रागैतिहासिक सभ्यता का महत्वपूर्ण स्थल है। ऐसा माना जाता है कि मानव सभ्यता ने जब खेती करना आरम्भ किया तो, पहले पहल जिन क्षेत्रों में खेती के प्रमाण मिले उनमें से एक गाँव सोहगौरा भी है।

पुरातत्व विदों तथा इतिहास वेत्ताओं द्वारा इस क्षेत्र के विषय में अभी बहुत विस्तार से नही लिखा गया किन्तु 1960 तथा तदोपरान्त 1974 के उत्खनन के बाद यह तथ्य प्रकाश में आया कि सोहगौरा वह गाँव है जहाँ पहले पहल हुयी धान की खेती के प्रमाण मिले हैं . इस गाँव का जब पहले पहल 1960 में उत्खनन हुआ तो इस तथ्य को गम्भीरता से नही लिया गया था, किन्तु 1974 की खुदाई में मिले मृदभाण्डों से स्पष्ट हुआ कि मृदभाण्डों को मजबूती देने के लिए मिट्टी में धान की भूसी मिलाई गई है। यही से इस धारणा को बल मिला कि धान की खेती के पहले प्रमाण विन्ध्य क्षेत्र के इस इलाके से ही मिले । इस प्रकार गाँव सोहगौरा इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक कालीन स्थल सिद्ध हो सकता है। बताया जाता है कि खुदाई के दौरान जो मृदभाण्ड और औंजार मिले थें वे 8000 ई0पू0 के हैं

Sunday, July 13, 2014

धर्म ज्ञान

क्या है जनेऊ (यज्ञोपवीत) का वैज्ञानिक रहस्य ?

जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है | लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सच क्या है ? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है |

दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का | अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है| तो यह रहा जनेऊ का वास्तविक रहस्य |

यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है | इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है | यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है | शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है |

यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है | यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है | यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता | अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है |

यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है | इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारण वश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | 
वैदिक अनुसार यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक उपनयन संस्कार है जिसमें जनेऊ पहना जाता है इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है. यज्ञोपवीत को जनेऊ, ब्रहासूत्र कहते है. यज्ञोपवीत= यज्ञ + उपवती अर्थात जिसे यज्ञ कराने का पूर्ण अधिकार प्राप्त हो यज्ञोपवीत धारण किये बिना किसी को गायत्री मंत्र करने या वेद पाठ करने का अधिकार नहीं है, और इसके बाद ही विद्यारंभ होता है. सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है. यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ होता है |

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है, इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं. ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है. तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है, तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं. अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है. यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है. . . . . .

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्  |
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ||

ब्रह्मचारी को तीन धागों बाला और विवाहित को 6 धागो बाला जनेऊ धारण करना चाहिये.

धार्मिक महत्व :- 
शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है. आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है. यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता.

शारीरिक महत्व :-
यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव इसका सदैव धारण करना चाहिए.

शौच के समय जनेऊ कान में क्यों बांधते है ?

"यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत "

अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है. हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें. यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है.जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है. इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है |

दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है दाएं कान को ब्रहमसूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है. यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रहमसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है |

मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है.आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है. जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते |

जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है | वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता | जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है | यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है | जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है |

बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है | किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है | अंडवृद्धि के सात कारण हैं | मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है | दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है | इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है |

यज्ञोपवीत बाएँ कंधे पर ही क्यों ?


यज्ञोपवीत व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है.इस प्रकार धारण करने के मूल में भी एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है. शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है.यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है. यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता |

अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है |

सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है | यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है |

आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता |

अब भी कोई ना माने तो ना मानो परन्तु हमें तो अत्यंत गर्व है हिंदुत्व के "सूक्ष्म विज्ञान" व आध्यात्म के ज्ञान पर .

Sunday, March 30, 2014

शांडिल्य गोत्र की व्युत्पत्ति
 व्रह्मा : कश्यप,असिती,देवल.
वेद :सामवेद
प्रवर : कश्यप,असिती,देवल
शाखा :कौथुमी
उपवेद:गन्धर्व
शिखा:वाम
पाद : वाम
सूत्र : गोमिल
इष्ट देव : शिव
वंशज : सरया,सोहगौरा,मठिया,देउरवा,बलुआ,सिरजम,धानी,सोपारी,चेतिया,परतावल.
उप नाम: राम,कृष्ण,नाथ,मणि.
राम घराना:गोरखनाथ नामक एक तपस्वी एवं ओजस्वी ब्राह्मण थे उन्ही के नाम पर राम घराना नाम पड़ा.
सरया,सोहगौरा,उनवलिया,अतरौलिया,रुद्रपुर,झुडिया,वहुआरी,मसरुतिया,कोठा,वदश,मऊ,गोहना,दुलई,मलहानी.
कृष्ण घराना: बारिपुर, बसावनपुर, बंजरिया ,बुधियाबारी.
नाथ घराना: चेतिया,परतावल,मिलौनी,निगहिया, नदौली.
मणि घराना: देवता, पचरुखिया, धानी, हरदी,बलुआ,बुधियाबारी,तलियाबाद,बढ़ना,सिरजम,सेमरी,रथवर्ग,देवतिया,बरपार,उद्धवपुर,हथिदह,परास्सुपारी,यमुना,करकपर्गढ़,सुकरौली,सोनौरा ,कुठौली,सिसवांलेदक.



Kauriram,Gorakhpu-<--------------------> सोहगौरा गाँव
This is a very old village on the junction of River Aami and River Rapti just about two kilometers away from Kauriram.The village is respected by the local brahmins and Tiwaries of Sohgaura are very famous amongst Saryu pari Brahmins in Eastern Uttar Pradesh.The original name of the village is Swaahaagaar where the Vedic Brahmins conducted Yajnas .The Tiwaries of this village still hold prominent posts in Govt. organisations.

Copper-plate grant Sohgaura
One of the most important sources of history in the Indian subcontinent are the royal records of grants engraved on copper-plates (tamra-shasan or tamra-patra; tamra means copper in Sanskrit and several other Indian languages). Because copper does not rust or decay, they can survive virtually indefinitely.

Collections of archaeological texts from the copper-plates and rock-inscriptions have been compiled and published by the Archaeological Survey of India during the past century.

Approximate dimensions of Copper Plate is 9 3/4 inch long x 3 1/4 inch high x 1/10 (to 1/16) inch thick.

The earliest known copper-plate known as the Sohgaura copper-plate is a Maurya record that mentions famine relief efforts. It is one of the very few pre-Ashoka Brahmi inscriptions in India.[c
सोहगौरा गाँव:
गोरखपुरके बांसगाँव तहसील क्षेत्र में सोहगौरा गाँव

सोहगौरा गाँव प्रागैतिहासिक सभ्यता का महत्वपूर्ण स्थल है। ऐसा माना जाता है कि मानव सभ्यता ने जब खेती करना आरम्भ किया तो, पहले पहल जिन क्षेत्रों में खेती के प्रमाण मिले उनमें से एक गाँव सोहगौरा भी है।

पुरातत्व विदों तथा इतिहास वेत्ताओं द्वारा इस क्षेत्र के विषय में अभी बहुत विस्तार से नही लिखा गया किन्तु 1960 तथा तदोपरान्त 1974 के उत्खनन के बाद यह तथ्य प्रकाश में आया कि सोहगौरा वह गाँव है जहाँ पहले पहल हुयी धान की खेती के प्रमाण मिले हैं . इस गाँव का जब पहले पहल 1960 में उत्खनन हुआ तो इस तथ्य को गम्भीरता से नही लिया गया था, किन्तु 1974 की खुदाई में मिले मृदभाण्डों से स्पष्ट हुआ कि मृदभाण्डों को मजबूती देने के लिए मिट्टी में धान की भूसी मिलाई गई है। यही से इस धारणा को बल मिला कि धान की खेती के पहले प्रमाण विन्ध्य क्षेत्र के इस इलाके से ही मिले । इस प्रकार गाँव सोहगौरा इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक कालीन स्थल सिद्ध हो सकता है। बताया जाता है कि खुदाई के दौरान जो मृदभाण्ड और औंजार मिले थें वे 8000 ई0पू0 के हैं